किसी को गद्दी से उतार कर चुनी हुई सरकार का गठन ही लोकतंत्र नहीं होता?
गणतंत्र का चीरहरण करने वाले तीन दलों को अब गणतंत्र बचाने की अपील करने की क्यों आई नौबत
उमेश चन्द्र त्रिपाठी/मनोज कुमार त्रिपाठी
नई दिल्ली! नेपाल में तेजी से घटित राजनीतिक उथल-पुथल के बीच भले ही गणतंत्र समर्थक दल एक हो रहे हों लेकिन तमाम ऐसे सवाल मुंह बाए खड़े हैं जिसका जवाब लोकतंत्र बहाली के बाद से लेकर आज तक की सरकार के पास नहीं है। हैरत है 2008 से लेकर अब तक 13 लोकतांत्रिक सरकार नेपाल में सत्ता रूढ़ हुई और सब के सब नेपाली जनता को परिवर्तन की अनुभूति कराने में विफल रहीं। नेपाल इस वक्त तेजी से हो रहे पलायन, मंहगे इलाज के अभाव में बढ़ रही मौत के आंकड़े, नशे की गिरफ्त में आ रहे युवा, बेतहाशा मंहगाई, बेरोजगारी और पड़ोसी देशों से तनाव पूर्ण रिश्तों को लेकर जूझ रहा है। इस ओर ओली सरकार का ध्यान नहीं है।
प्रमुख माओवादी नेता पुष्प कमल दहाल उर्फ प्रचंड के नेतृत्व में पहली लोकतान्त्रिक सरकार हो या आज की ओली सरकार, सबके सब जोड़-तोड़ कर किसी तरह सत्ता बचाए रखने की गुणा गणित में ही व्यस्त रहे।
यह अचरज ही है कि दुनिया में जहां कहीं भी राजतंत्र के बाद लोकतंत्र का उदय हुआ वहां दिन प्रतिदिन लोकतंत्र मजबूत ही हुआ लेकिन नेपाल में ऐसा नहीं हो रहा। किसी को गद्दी से उतार कर चुनी हुई सरकार का गठन ही लोकतंत्र नहीं होता। लोकतंत्र का मतलब लोकहित है, जो नेपाल में नहीं है।
जनता पुनः राजतंत्र के समर्थन में न हो लेकिन लोकतांत्रिक सरकारों से खुश नहीं है। वह आक्रोशित हैं और तीसरे विकल्प की तलाश में भी है। नेपाली कांग्रेस जो राजतंत्र के जमाने से ही सत्ता की प्रमुख केन्द्र बिन्दु रही, वह भी अब कुंद पड़ गई है। इसके तमाम बड़े नेता गंभीर आपराधिक मुकदमों में फंसे हुए हैं।
कोइराला परिवार के हाथ में जब-तक इस पार्टी का कमान था तब तक विश्व के राजनीतिक फलक पर नेपाली कांग्रेस की अलग हैसियत थी। अब इस पार्टी का इकबाल पहले जैसा नहीं रहा। कभी भरोसे की पार्टी की पहचान वाली यह पार्टी जनता का विश्वास खोती जा रही है। इस पार्टी की औकात बस यही है कि यह किसी को समर्थन देकर सरकार बनवा सकती है और समर्थन वापस लेकर सरकार गिरा सकती है।
पिछले कुछ सालों से नेपाली कांग्रेस की शिनाख्त नेपाल की राजनीति में इसी रूप में है। एक नहीं तीन-तीन बार प्रधानमंत्री रह चुके प्रचंड और ओली भी जन विश्वास पर खरा नहीं उतरे। ऐसे में नेपाल प्रतिनिधि सभा में (संसद) सात आठ सांसदों वाली पार्टी राप्रपा खुद को विकल्प के रूप में खड़ा होने की कोशिश कर रही है। नेपाल की इस हिंदूवादी पार्टी की हालत अभी शिशु जैसी ही है ऐसे में नेपाली जनता का इसे विकल्प के रूप स्वीकार करना संभव नहीं जान पड़ता। खुद को राजा समर्थक पार्टी का दावा करने वाली राप्रपा ने नेपाल के बहुसंख्यक हिन्दुओं का समर्थन जुटाने के लिए पूर्व नरेश ज्ञानेंद्र के नाम का सहारा लिया। नेपाल में जगह-जगह उनके समर्थन में रैलियां निकाली गई, पोखरा से लेकर काठमांडू तक उनका भव्य स्वागत किया गया। यह सब इस अंदाज में किया गया मानो राजतंत्र की वापसी हो रही हो। लेकिन हाल ही नववर्ष के अवसर अपने आवास पर मिलने गए राप्रपा अध्यक्ष राजेंद्र लिंगदेन सहित अन्य वरिष्ठ नेताओं से ज्ञानेंद्र ने राप्रपा की कार्यशैली पर एतराज जताया और यह भी कहा कि किसी भी आंदोलन में उनके नाम का इस्तेमाल न हो। हां पूर्व नरेश ज्ञानेंद्र ने राप्रपा नेताओं को नेपाल के जनहित के मुद्दों पर फोकस करने को जरूर कहा। उन्होंने कहा मौजूदा सरकार से जनता त्रस्त है, सरकार की विफलता को जनता के बीच उठाएं।
इधर राजतंत्र की वापसी पर नेपाल के बुद्धिजीवी और मीडिया की भी प्रतिक्रिया आई है। नेपाल के सबसे बड़े दैनिक अखबार कांतिपुर के संपादक उमेश चौहान ने साफ कहा है कि सरकार से जनता नाराज हैं लेकिन इसे राजतंत्र की वापसी की दृष्टि से न देखा जाय।
इस बीच अचानक नेपाल के तीन प्रमुख गणतंत्र समर्थक दलों के शीर्ष नेताओं की लोकतंत्र और संविधान की रक्षा के लिए जनता से एकजुट होने की अपील को नेपाल की राजनीति में महत्वपूर्ण दृष्टि से देखा जा रहा है।
पिछले दिनों प्रधानमंत्री निवास बालुवाटार में आयोजित बैठक में एमाले, माओवादी केंद्र तथा नेपाली कांग्रेस के अध्यक्ष क्रमशः केपी शर्मा ओली, पुष्प कमल दहाल ‘प्रचण्ड’ और शेर बहादुर देउबा ने गणतंत्र के पक्ष में खड़ी सभी शक्तियों से एकजुट होने की आवश्यकता पर सहमति जताई।
बैठक के बाद पत्रकारों से बातचीत करते हुए प्रधानमंत्री के मानवाधिकार तथा संक्रमणकालीन न्याय मामलों के सलाहकार अग्नि खरेल ने बताया कि संविधान का उल्लंघन करने और सामाजिक अराजकता फैला कर देश की शांति एवं स्थिरता को बाधित करने वाली शक्तियों के प्रति सचेत रहते हुए सभी प्रमुख राजनीतिक दलों समेत गणतंत्र-वादी शक्तियों को एक मंच पर आने की आवश्यकता है।
ओली सरकार का मानना है कि हिंदूवादी संगठनों के साथ मिलकर राप्रपा ने पिछले दिनों धरना प्रदर्शन कर काठमांडू में अशांति पैदा की थी। इस पार्टी के तीन बड़े नेता गिरफ्तार कर जेल में डाल दिए गए हैं। पिछले दिनों इनकी रिहाई की मांग को लेकर भी इस पार्टी ने काठमांडू में प्रदर्शन किया था। ओली सरकार यह मानकर चल रही है आगे भी ये लोग लोकतंत्र को छिन्न-भिन्न करने का खेल खेलते रहेंगे इसलिए लोकतंत्र समर्थकों की एक जुटता जरूरी है।