नेपाल में राजशाही और हिंदू राष्ट्र की सुगबुगाहट से सकते में है ओली सरकार

गणतंत्र के बाद बनी सारी सरकारें जनता की कसौटी पर खरे नहीं उतरे, इसी लिए पुनः राजशाही और हिंदू राष्ट्र की हो सकती है वापसी? 

देश में बड़े पैमाने पर मंहगाई और भ्रष्टाचार से त्रस्त हैं जनता 

उमेश चन्द्र त्रिपाठी 

काठमांडू! भारत का पड़ोसी देश नेपाल आज एक गंभीर राजनीतिक संकट से गुजर रहा है। पूर्व गृह मंत्री कमल थापा की गिरफ्तारी और ‘राजा लाओ,देश बचाओ’ के नारों ने एक बार फिर राजशाही बनाम लोकतंत्र की बहस को जन्म दे दिया है। 

साल 2008 में राजशाही के उन्मूलन के बाद से नेपाल ने कई संवैधानिक संकटों, राजनीतिक अस्थिरताओं और आर्थिक मंदी का सामना किया है। ऐसे में नेपाल में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि क्या देश के लिए संवैधानिक राजशाही वर्तमान लोकतांत्रिक गणतंत्र से बेहतर विकल्प हो सकता है?

बता दें कि नेपाल में राजशाही की परंपरा 240 वर्षों से भी अधिक पुरानी है। पृथ्वी नारायण शाह ने 1768 में नेपाल का एकीकरण किया और ‘चार वर्ण छत्तीस जात एक सुतली’ का सिद्धांत दिया। उनके उत्तराधिकारियों ने नेपाल को ब्रिटिश औपनिवेशिक शक्तियों से स्वतंत्र रखा। 20 वीं सदी में राजा त्रिभुवन ने 1951 में लोकतंत्र की शुरुआत की, जबकि राजा महेन्द्र ने 1962 के संविधान के तहत पंचायत व्यवस्था लागू की। 01 जून साल 2001 के राजपरिवार हत्याकांड और 2006 के जन आंदोलन और 2008 में राजशाही के उन्मूलन तक नेपाल में राजशाही और लोकतंत्र के बीच तनाव बना रहा। हालांकि, यह ध्यान देने योग्य है कि साल 1990 से 2001 तक का काल संवैधानिक राजशाही का सफल उदाहरण रहा, जब राजा वीरेन्द्र राष्ट्र प्रमुख थे और चुनी हुई सरकारें शासन चलाती थीं। 

नेपाल में वर्तमान जन असंतोष के पीछे साल 2008 के बाद से लोकतांत्रिक व्यवस्था और राजनीतिक दलों की विफलताएं मुख्य कारण हैं। पिछले 16 वर्षों में देश ने 10 प्रधानमंत्रियों को देखा है, जो राजनीतिक दलों के बीच लगातार होने वाले संघर्ष और सत्ता के लालच का परिणाम है। नेपाली कांग्रेस के अध्यक्ष शेर बहादुर देउबा ने तीन बार प्रधानमंत्री का पद संभाला, लेकिन हर बार भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे रहे। माओवादी आंदोलन के चेहरा रहे पुष्प कमल दहाल ‘प्रचंड’ ने जनयुद्ध के नाम पर सत्ता हासिल की, लेकिन सत्ता में आते ही अपने क्रांतिकारी वादों को भूल गए। उनके पार्टी के नेता और पूर्व प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली ने राष्ट्रवादी राग अलापा, लेकिन चीन-समर्थक नीतियों ने देश को गहरे संकट में डाल दिया।

इनके अलावा, मधेशी नेताओं जैसे उपेन्द्र यादव और महंथ ठाकुर भी अपने क्षेत्रीय हितों से ऊपर नहीं उठ सके। राष्ट्रीय प्रजातन्त्र पार्टी के कमल थापा जैसे नेताओं ने राजशाही की वापसी का नारा तो दिया, लेकिन वास्तविक विकल्प पेश नहीं कर सके।

ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल के आंकड़े बताते हैं कि इस अवधि में भ्रष्टाचार में भारी वृद्धि हुई है, जिसमें अधिकांश मामले राजनीतिक दलों के नेताओं और कार्यकर्ताओं से जुड़े हैं। आर्थिक मोर्चे पर राजनीतिक दलों की विफलताएं और भी स्पष्ट हैं। युवाओं का बड़े पैमाने पर विदेश पलायन और बेरोजगारी की उच्च दर सीधे तौर पर राजनीतिक दलों की नीतिगत विफलताओं का परिणाम है। सांस्कृतिक पहचान संकट ने इस असंतोष को और गहरा किया है, जहां हिंदू राष्ट्र की समाप्ति को बड़े वर्ग द्वारा राजनीतिक दलों द्वारा थोपा गया फैसला माना जाता है।

विदेश नीति के मोर्चे पर चीन और भारत के बीच संतुलन बनाने में असमर्थता भी राजनीतिक दलों की दिशाहीनता को दर्शाती है। राजनीतिक दलों ने संविधान के कार्यान्वयन में भी पूरी तरह विफलता दिखाई है। संघीय व्यवस्था को लागू करने में हो रही देरी, स्थानीय सरकारों को पर्याप्त अधिकार न देना, और संवैधानिक संस्थाओं के गठन में राजनीतिक हस्तक्षेप ने जनता का विश्वास पूरी तरह खो दिया है। यही कारण है कि आज नेपाल की जनता राजनीतिक दलों से पूरी तरह निराश हो चुकी है और वैकल्पिक व्यवस्थाओं की तलाश कर रही है। 

राजनीतिक दलों की यह सामूहिक विफलता ही वर्तमान जनाक्रोश का मुख्य कारण है जो आज सड़कों पर स्पष्ट दिखाई रहा है।

धर्मनिरपेक्ष गणतंत्र वास्तव में नेपाली जनता की स्वतंत्र इच्छा का परिणाम नहीं था। यह परिवर्तन बिना जनमत के, केवल सशस्त्र संघर्ष के दबाव में लाया गया था। हिंदू राष्ट्र की समाप्ति और राजशाही के उन्मूलन ने नेपाल की सांस्कृतिक पहचान को गहरा आघात पहुंचाया। आज भी नेपाल की बड़ी आबादी इन परिवर्तनों को अपनी परंपराओं पर थोपा गया परिवर्तन मानती है। नेपाल के वर्तमान संकट का समाधान संवैधानिक राजशाही में निहित हो सकता है, जैसा कि ब्रिटेन, जापान और थाईलैंड जैसे देशों में सफलता पूर्वक कार्य कर रहा है। यह व्यवस्था नेपाल की वर्तमान समस्याओं का समाधान प्रस्तुत कर सकती हैं।

इसके तहत सबसे पहले, राजा विभाजनकारी राजनीति से ऊपर उठकर सम्पूर्ण राष्ट्र का प्रतिनिधित्व कर सकते हैं, जो कि नेपाल जैसे बहुजातीय और बहुसांस्कृतिक समाज के लिए विशेष रूप से महत्वपूर्ण है। दूसरा, यह व्यवस्था हिंदू राष्ट्र की ऐतिहासिक पहचान को संरक्षित करने में सहायक होगी। तीसरा, संवैधानिक राजशाही लगातार बदलती सरकारों के बीच स्थिरता का स्तंभ प्रदान कर सकती है, जिसकी आज नेपाल को सबसे अधिक आवश्यकता है। इस प्रकार का संतुलित मॉडल नेपाल को वर्तमान राजनीतिक संकट से उबारने में मदद सकता है, जहां एक ओर लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा होगी और दूसरी ओर राष्ट्रीय एकता व सांस्कृतिक पहचान भी सुरक्षित रहेगी।

नेपाल आज एक निर्णायक मोड़ पर खड़ा है। नेपाल की सरकार को चाहिए कि वह जनअसंतोष को दबाने के बजाय संवाद का मार्ग अपनाए। साल 2008 के बाद का प्रयोग साबित कर चुका है कि बिना ठोस संस्थागत ढांचे के लोकतंत्र सफल नहीं हो सकता। राजशाही की वापसी का अर्थ अतीत की निरंकुश व्यवस्था में लौटना नहीं, बल्कि एक ऐसी संवैधानिक व्यवस्था का निर्माण करना है जो नेपाल की गौरवशाली परंपरा और आधुनिक लोकतांत्रिक आकांक्षाओं के बीच सही संतुलन बना सके।

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